Friday, March 25, 2022

झोपड़पट्टी के मासूम फूलों का झुंड

                     जिंदगी,झोपडपट्टी की अंधेरी संकरी गलियों में कदम तोड़ देती है और किसी को भी पता नहीं चलता है।जीवन जिसके मायने किसी को भी मालूम नहीं होते हैं।उस घर के अंदर बाप का गला दबाने के लिए डॉन तैयार है कि बंगले पर माँ,बर्तन धोने व सफाई का काम कर जैसे तैसे जिंदा लाश में सांस फूँकती है,वो परेशान है।पति शराब के बोतल में जीवन के मायने ढूंढता है तो बेटे को जीवन के मायने ही नहीं मालूम।

       अंकुश(अंकुश मसराम,(मेश्राम नहीं।दोनों सरनेम दो अर्थ वाले हैं।)ने ‘डॉन’ नाम को अपना नाम मान लिया।अंकुश को इतनों ने इतनी बार ‘’डॉन’’,बोला कि उसे लगा उसका नाम डॉन है।जिस बात को लगातार बोला बताया जाए, वो बात सच मान ली जाती हैं।ऐसे कई 'सच' को सदियों से हथियार बना या गया है। सच’ नाम के नाम पर एक पहचान का सवाल हैं।उसी पहचान के भीतर जीने वाला डॉन,डॉन बनना भी नहीं चाहता हैं। उसके भीतर का मनुष्य जीना चाहता है।मदद करने के लिए अगर किसी से भी लड़ना-भिड़ना पड़े तो लड़ पड़ता हैं।तीन बेटियों के साथ पति को तलाक बोलकर अंधेरी बारिश में घर छोड़कर चली आती है,रजिया।रास्ते में उसे डराने धमकाने वाला रजिया के पति के खिलाफ डॉन खड़ा हो जाता हैं।

      बेवजह घूरकर देखने वाले से डॉन पूछता है,क्यों घूर रहा है?मीठी चाय डॉन की जबान को कड़वाहट से भर देती है कि सवाल के जवाब शब्दों से नहीं मिलते।सामूहिक रूप से,एक गैंग

उस पर टूट पड़ती है कि माफी मांगे।डॉन सॉरी बोलता है कि अकेला पड़ जाता है।तब सवाल उठता है किस बात की माफी मँगवाई जा रही है

       रेल की पटरी पर मालगाड़ी लगातार दौड़ती हैं।इस पटरी पर इंसानों से भरी हुई रेलगाड़ी नहीं आती हैं न किसी को ले जाती हैं।बच्चें जिन्हें स्कूल में होना चाहिए वे मालगाड़ी से कोयले के टुकड़े फेंकते हैं कि उन टुकड़ों पर जीते हैं।कचरे के ढेर,गंदगी से होते हुए झोपड़पट्टी की जिंदगी में दाखिल हो जाते हैं कि वो जिंदगानी निर्देशक नागराज पोपटराव मंजुले की आँख गड जाती हैं। कैमरे की निगाह से जीवन दिखता है।वातानुलित सिनेमाहाल के भीतर अंधेरा पसर जाता है।बचपन दिखता है,जो खो गया था।धीरे-धीरे बदन कांपता है कि झोपड़पट्टी मेझुंड में अपने आपको खड़ा पाता हूँभाग रहा हूँ लेकिन कहीं नहीं पहुँच पाया हूँ।

      क्या खोया?क्या पाया,इस जद्दोजहद की बजाय आँख नम होते होते आँसू निकलने लगते हैं।दिल इतना भर आता है कि रोना चाहता हूँ,जार जारलेकिन चुप रह जाता हूँ। सार्वजनिक जीवन के इस दबाव में यह बन गया हूँ कि रोने की आवाज नहीं निकलती हैं।मेरे ऊपर जमाना इतना हावी हो जाता है कि चुपचाप,सिसकता हूँ।वो क्या है जो मुझे रुला देता है?

      आपने कभी किसी के रोने की आवाज सुनी हैं?

    मैं अभी भी उसी झुंड में खड़ा पाता हूँ।


       झुंड के एक पात्र में परिवर्तित होने के लिए हर चेहरे,आँख उसके सपने और विवशता में लगातार अपने आपको तलाशता हूँ।इसेअनावश्यक भावुकता कहकर खारिज किया जा सकता है,हैं न।

    

     माफी मांगने के बाद अब वे चाहते है कि डॉन उसके पैरों में गिर पड़े।पैर पड़कर माफी मांगे।पैर पकड़कर माफी मांगने से कलेजे को ठंडक पड़ती है कि मनुष्यता का कत्ल करने पर खुशी हासिल होती है।डॉन के हाथ माफी मांगने के लिए जुडते नहीं हैं,तो फिर उसकी रीढ़ की हड्डी कैसे झुक सकती है?और आखिरकार डॉन उसके पैर नहीं पड़ता है।

     विजय(अमिताभ बच्चन)जानते  है कि झोपड़पट्टी के बच्चों में हुनर है और ये टीम,उनकी बड़ी बिल्डिंग वाली अँग्रेजी सेंट जॉन कॉलेज की टीम से बेहतर हो सकती हैं।पाँच सौ रुपये देकर विजय उन बच्चों से खेलने के लिए आमंत्रित करता हैं। इस बात पर छोटा बच्चा कार्तिक, विजय की नियत पर चाकू की धार सा नुकीला सवाल करता है।पैसे देकर क्यों खेलने को बोल रहा है?बोल रहा है,तो कहीं पैसे देने के ‘वादे’ से मुकर तो नहीं जाएगा।

       नियत और वादे पर सवाल करते हुए फिल्म आगे बढ़ती है और सवाल के जवाब ढूंढने के लिए तैयार करती हैं।वादों से छला हुआ समाज नियत पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।

      विजय इस तरह छात्रवृति’ देता है कि एक बार वो मैदान में आकार टीम बन जाए कि उनके भीतर सीखने की भूख बढ़ जाए।जिसके पास खाने पीने के समुचित इंतजाम नहीं हैंउसके लिए स्कूल भी बेमानी है,फिर खेल खेलना तो?खेलने से बिगड़ जाते हैं बच्चे।यही परंपरा रही है यहाँ की।और जो बिगड़ चुके हैं,उनको फुटबाल सिखाना चाहते हैं,विजय।

      झोपड़पट्टी वालों के पैरों में जूते नहीं है कि फुटबाल खेला जा सके।उनका अपना ‘फुटबाल’ नहीं है फिर भी प्रैक्टिस की जाती है।परंपरा को चुनौती देना मुश्किल है कि जब राष्ट्रीय झोपड़पट्टी फुटबाल प्रतियोगिता के लिए मैदान उपलब्ध करने वाले मैदान के मालिक,स्कूल प्रबंधन कहता है,तुमने कॉलेज को झोपडपट्टी बना दिया।‘’

      यह सवाल,एक बड़ा हथौड़ा बनकर सिर पर पड़ता है। सिर फूट जाता हैं। झोपड़पट्टी बना दिया अर्थात क्या बना दिया?

      झोपड़पट्टी का मतलब क्या है?घर?आवास?अपराधियों की शरणगाह?क्या है,झोपड़पट्टी के मायने?पृथ्वी का यह कौन सा ग्रह हैं,जहां जीवन नहीं हैं।मनुष्य नहीं हैं? मूलभूत सुविधा नहीं हैं।

       घृणा से भरे व जहर बुझे हुए इस भाव सवाल के मायनों में झोपड़पट्टी के मायने क्या हैंबड़े लोगों के घरों के भीतर सफाई करने वाले,उनकी जूठनगंदे बर्तन,बदबूदार दाग वाले कपड़ों को धोने वाली महिलाएँझोपड़पट्टी के ‘’अपराधियों’ की माँबहन या पत्नी होती है।बड़े लोगों के बंगले,सोसाइटी,अपार्टमेंट की सुरक्षा करने वाले ‘इन्हीं’ ‘’अपराधियों’ के समूह में से आते हैं।फिर भी तब वे किसलिए अच्छे लगते हैं?

    शोषण की विरासत का ज्ञान लेकर वे न्यूनतम मजदूरी अधिनियम की अर्थात देश के कानून की धज्जियां उड़ाते हुए मनचाहा अश्लील,बेहूदा,अमानवीय व्यवहार कर सकते हैं कि धमका सकते हैं कि नौकरी से हटा दूंगा।

    जैसे ही वह यह "फैसलासुनाता है,उस वाहियात के भीतर यह अहसास होता है कि मैंने तुम्हें मौत की सजा दे दी हैं।मेरे यहॉं काम नहीं करोगे तो भूखे मर जाओगे।जबकि यह  'नौकरी’ नहीं ’बेगारी’ होती है।

    बेगारी।

काम का कोई दाम नहीं।काम वाले का सम्मान नहीं।समता नहीं।शोषण तंत्र और भेदभाव का गटर हैं।        वे नहीं चाहते है कि झोपड़पट्टी वाले वे भूख से मर जाए।वे चाहते हैं,उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े रहे।सलाम करे।सामने आने पर रास्ते से हट जाए,इस तरह से हट जाये कि हटते ही उसके चेहरे पर यह भाव आ जाये कि’’इस रास्ते का उपयोग कर उसने गुनाह किया है,इसलिए वो अदब से माफी मांगने का स्वर उसके चेहरे से टपके।

      मुक्ता सालवे के पिता ने 1855 में बताया था, कुछ साल पहले राजा की सवारी के सामने आ जाने से राजा  को लगा था ये क्या गुनाह कर दिया?उसके कारिंदों ने बताया कि इसकी छाया पड़ जाती तो महाराज अपवित्र’ हो जाते। अनिष्ट के भय के साथ वे तत्काल अस्पृश्य को जान से मार डालते हैं।

      क्या इसी मानसिकता का वायरस अभी भी मौजूद है,जो लिफ्ट मे उन्हें,अपने साथ आने नहीं देना चाहता हैं?जो आज उनके घर के भीतर सीढ़ियों से जाता हैं।उसे बार बार अपने बराबर न होने का एहसास दिलाया जाता हैं।कमतरता उसके दिमाग में ठूंस दी जाती हैं,हर रोज।

   ये वही है जिनकी बड़ी बिल्डिगों में दीवार पर लिखा जाता है कि कामवालीनौकरदूधवालापेपरवालासफाईवाला, लिफ्ट का उपयोग न करे।क्योंकि लिफ्ट का उपयोग करने से,उसके कदम से उनकी छाया से यह पवित्र पावन लिफ्ट अपवित्र हो जायेगी।

   खेल का मैदानछुट्टी के दिनझोपड़पट्टी वालों को न मिले वरना मैदान अपवित्र हो जाएगा।ताउम्र उनकी नौकरी करने वाला विजय अपनी रिस्क पर हाथ जोड़कर भीख मांगता है। गिड़-गिड़ाने के बाद ही दिल पसीजता हैबड़े लोगों का।बड़े लोगों का दिल बड़ा होता है तभी वो वक्त लेता है,पिघलने के लिए।

    पवित्र भूमि और पावन शैक्षणिक संस्था वाले,जिन्होंने खुद को बड़ा मान लिया हैं,वे बड़े दयालु है।वहॉं झोपड़पट्टी वाला ‘अलाउ’ नहीं हैं।

     झोपड़पट्टी वाले अपने झोपडियो के बच्चों के खेल को देखने के लिए ’गेट’ से नहीं आ सकते है।ताला बंद हैं।इतवार के दिन स्कूल में बच्चे नहीं है,वरना झोपड़पट्टी वाले अगर उनके सामने आ जाते,मिलते/बतियाते/खेलते तो ’बड़े घरवालो’ की औलाद बिगड़ जाती।

औलाद न बिगड़े इसलिए झोपड़पट्टी वाले बच्चों से दोस्ती तो दूर की बात,उनसे बात तक करने नहीं दी जाती है।बात करते हुए पाये जाने पर अपनी ’’औलादको जलील करते हुए,झोपड़पट्टी वालों के खिलाफ जहर उगलते है।यह जहर सदियों से संचित है,जो बात बे बात पर बाहर निकलता है। मौका मुद्दा मिलने पर तो वे टूट ही पड़ते है।सवाल/विषय/मुद्दा कोई भी हो,वहॉं जहर के अंश अभिव्यक्त करने में नहीं चूकते है।

      कहॉ चूक गये थे कि मोनिका गेडाम (रिंकू राजगुरु) अपनी पहचान को सत्यापित करने के लिए भटकती है। भटकते है पिता।दोनों निरक्षर है।‘’1848 में शूद्रों के लिए पाठशाला खोली थी ज्योतिबा फुले ने।अब राज्य के सबसे बड़े महानगर की गली में निरक्षर हैं।बच्चें अनपढ़ हैं।ज्योतिबा,तुम्हारे इंतजार में है पूरी गली।’’(अंतरदेशीय पत्र कहानी का अंश)

       वे इंतजार में अभी भी हैं कि इंतजार करते करते पिता थक जाते है।हार मान लेते है पिता।पिता और मोनिका की बातसिनेमा देखने वाले समझ जाते है लेकिन वे उस भाषा कोउसके शब्द को नहीं जानते है।वे पिता बेटी,क्या बोल रहे है?उनकी विवशता,दुनिया की किसी भी भाषा के शब्द की मोहताज नहीं है इसलिए निर्देशक नागराज मंजुले,गोंडी भाषा के अनुवाद के लिए परदे पर अक्षर डालते नहीं है।सबटाइटील नहीं देते हैं। दुख तकलीफ मोहब्बत भाषा के मोहताज नहीं होते हैं।

  अक्षर के मायने कहॉं-कहॉं हो सकते हैजानते है कि अक्षर शब्द हर जगह जरूरी नहीं है।निर्देशक नागराज गोंडी,बांग्ला,मराठी सहित कई भाषाओ को बोलते हुए दिखाते हैं और उसके अनुवाद की कोशिश नहीं करते हैं।दर्शकों पर छोड़ देते हैं।कई सवाल और विचार को बिना समझाए सामने जस का तस रख देते हैं। 

      समझने वाले जानते है कि मोनिका को ‘पहचान पत्र,’ निवासी’ प्रमाण पत्र चाहिए कि वो देश की  निवासी है।उसे कोई नहीं जानता हैं। किसी तीसरे के जानने से वो उसकी पहचान के लिए साइन कर देता हैं।उस न जानने वाले की कलम से पहचान सत्यापित होती है।"जो हमें नहीं जानता,नहीं पहचानता,वही हमें सत्यापित करता है।उसी ना जाननेवाले के दस्तख़त से हमें जाना जाता है।कभी-कभी लगता है कि ये कौन हैं, कहाँ से आए हैंजिनके पेन से ही तय होती है हमारी पहचान?"(कहानी ‘सत्यापित’ का अंश)

     विजय के घर आकर,वो छोटा बच्चा कार्तिक कहता है कि इतना बड़ा घर उसने कभी देखा नहीं। उसके भीतर का आश्चर्य इतना बड़ा हो जाता है कि इस देश के कथित मध्यवर्ग के बड़े बंगले की औलाद अगर अंबानी के’’एंटेलियामे जाकर उनका घर देखेगी तो इतने ही बड़े बल्कि इससे भी अधिक आश्चर्य से भर जायेगी। जबकि देखने वालों की निगाह मे विजय सर का घर,’बड़ा’ नहीं है,लेकिन उस बच्चे की निगाह से देखिए,सोचिए,वो कितना बड़ा घर हैं।

      आप किस जगह खड़े होकर ’’झुंडदेख रहे है?सोच रहें हैंआपको अपनी लोकेशन सेट करना पड़ेगी,अगर आपके भीतर संवेदनशीलता नहीं है,तो।मोबाइल में कंप्यूटर में आपको आपकी ’लोकेशन’ बताना ही होती है ताकि आप ’सही’ जगह पहुच जायेलेकिन ’झुड’ में आपकी 'लोकेशन’ ’सेट नहीं हो रहा है तो आप चिंता करने लगते है कि नागराज क्या दिखा रहें है?क्या सुना रहे है?

    अम्बेडकर जयंती को कैसे मनाना चाहिए? झोपड़पट्टी वाले अपने मनुष्य होने का,एक संप्रभु देश का नागरिक के रूप में ’सार्वजनिक’ पहचान हासिल करने के लिए ’सार्वजनिक सड़क’ पर निकलते है।वो चैत्यभूमिदीक्षाभूमि,जन्मस्थली, पर जाते है कि वो ’एक दिन उस सड़क पर अपने मानवीय अधिकार को अभिव्यक्त करते हैं।मनुष्य होने का अहसास,सिर उठाकर जीने की आस को सबके सामने रखते हैं।

   ’इस तरह’ सामूहिक रूप् से उनका होना/जीना/रहना,उस विषमता,शोषण और भेदभाव की मानसिकता वाले ज्ञानी से लेकर तमाम तरह के लोगों को नागवार लगता है।क्यों?

  क्योंकि सड़क पर जाम लगता है/गंदगी फैलती है/ऑफिस जाने में देर होती है/कि ’कानफोडू’ आवाज से परेशानी होती है।यह तर्क अविवादित तब तक है जब तक कि साल भर किसी वीआईपी/नेता/अन्य के आगमन से लेकर किसी बिगडैल परिवार की औलाद की शादी समारोह सेकिसी धन पशु के द्वारा बड़े-बड़े होटल/प्रांगण/मैरिज गार्डन में रात भर ’कानफोडूशोर सुनने के बाद भी क्या ‘इतनी ही’‘ऐसी ही’ ’घृणाआपके भीतर आती हैपनपती है?बढ़ती है?

सभी जगह डीजे लाउड स्पीकर प्रतिबंधित करने का विचार क्यों नहीं आता हैं?

निर्देशक नागराज मंजुले डीजे का प्रतिपक्ष रचते हैं।किराना वाला चन्दा देने से इसलिए इंकार करता हैं कि अंबेडकर जयंती पर डीजे बजाएंगे।वो बाद में बड़ी रकम विजय को खेल के लिए देता हैं.

      नागराज दृश्य और संवाद से इस सोच मानसिकता पर सवाल खड़े करते है कि ढपला बजता है।fendri में जबया ढपला बजाता हैनागराज फिल्म प्रदर्शन के पहले दिन पूणे में बजाते है कि मनुष्य जीवन जीने के लिए बजाते है।’’दोस्ती बैंड नं0 1’’ की  दुकान पर प्रैक्टिस करता हुआ बजाता हैं,बस तुम ही हो,तुम ही हो मेरी जिंदगी।।’’ सुर और बैंड का नाम प्रतिकात्मक संसार रचता है। 

  उड़ान की खबर सुनकर अंकुश अपने साथियों के साथ खुशी दौड़ लगाता हैं। कुछ हासिल होने की दौड़ दीक्षा भूमि के सामने से होकर गुजरती हैं। 

    उड़ान भरता है विमान कि नजर आता है,’’crossing compound wall is strictly prohibited’उस तरह की ‘’दीवार’’ को ढहाने की बात विजयन्यायालय में आदरणीय जज महोदया से करते है।उस दीवार को पार रहने वालों को पता नहीं हैं कि झोपड़पट्टी है और उसके भीतर भी जीवन है।प्रेम है।मनुष्य है।वो आर्थिक सक्षम जीवनमानवीय गरिमा और सम्मान के साथ जीना चाहते है। उसी दीवार के पार ’कचरा’ फेंकने का दृश्य दिखता है तो लगता है,उस पार के लोगइधर ’’कचरा’ फेंकने पर न शर्म महसूस करते है न उनमें अपराध भावना आती हैं।वे इसे बेहद सहजता से अपना अधिकार मान लेता है,झोपड़पट्टी के पास या सार्वजनिक जगह पर कचरा फेंकने के लिए वे आजाद है।

  सड़क परकिसी कोने पर फेंके जाने वाले ’कचरे’ को हटाने के लिए एक कौम की औरतें रातभर सफाई करती है।रातभर सड़क पर रहती है।रातभर अकेली, जीवन जीती है। रातभर की सफाई के बाद, ’स्वच्छता सर्वेक्षण’ नम्बर देता है। और लोग कहते है,’फलानेशहर की जनता कितनी सफाई पसंद है कि उनको रात की हकीकत पता ही नहीं है। जिन्हें हकीकत पता हैवे कहते है,ये ते उनका कामहै।इसके बदले में ’दाममिलता है।तो कौन सा बड़ा तीर मारा है।

  अपने बच्चों को,परिवार को हर रात अकेले छोड़कर सड़क पर आने वालों के ’काम’ की ’अहमियत’ अगर आप आंक नहीं पा रहे है,तो ’झुंड’ आपके लिए नहीं है।

    झुंड देश के बड़े समाज के जीवन का नंगा सच है।कोर्ट में विजय कहते है,’’सदियों से बहिष्कृत कर रखा हैं।जन्म से कोई अपराधी नही होता।।।।।

‘’’दीवार के पार बहुत बड़ा भारत रहता है।उसे हम नही जानते।’’

‘’ये जिंदगी की समस्या से भाग रहे है।’’

‘’सत्या पर पाइप तोड़ने का इल्जाम है।चार दिन से पीने का पानी नही आ रहा था।

।।।क्या जीना अपराध है।’’ 

बेहद छोटे नुकीले संवाद से फिल्म समता का दर्शन सामने रखती हैं,जिसमें बंधुत्व की भावना की मांग होती हैं।

       ’’दुनिया ने हमको रोज देखा फिर भी अनदेखा किया हैगाया जाता हैं तो झुंड के भीतर से शब्द,संगीत से सनकर बाहर निकलते है।सना हुआ और आंखों के सामने अंधेरा छाने लगता है कि ऑंखों के भीतर से आंसू आते है और याद आता है,वो मासूम कार्तिक जो सवाल करता है,’’भारत,मतलब?

     कार्तिक,वो मासूम लड़का,जवाब की तलाश में ताकता रहता है,बाकि हंसते रहते है लेकिन जवाब किसी के पास नहीं होता है।और आखरी में जवाब आता है,भारत मतलब अपना गड्डी गोदाम। यह देश झोड़पट्टी वालों का हैं। इस दृश्य में नागराज इतिहास बताते हैं।विविध धर्म,जाति,भाषा बिना बताए चले आते हैं।  

    झुंड फिल्म का नायक,महानायक या डॉन न होकर लोकेशन है।जगह हैं।झोपड़पट्टी हैं।घटनाए हैं।परिस्थितियाँ हैं।भूख हैं।अभाव हैं।सपने हैं।हसरत हैं।अवसर की तलाश हैं।मोहब्बत हैं। दोस्ती हैं। फिल्म में वे दृश्य हैं जो कविता की तरह परदे पर आते हैं और दिमाग में कोलाहल मचा देते हैं।इस दौरान अजय-अतुल का संगीत,गीत की हकीकत को ताल देते हैं कि विपिन का रैप सांग जीवन कि विडंबना,विद्रूपता के बीच संघर्ष और कुछ कर गुजरने का आव्हान करता हैं। 

   झोपड़पट्टी के बच्चों का अभिनय ‘झुंड’ के माध्यम से परदे पर मुखरता से आता हैं।वे अपने अनगढ़ रूप में आकर सारे के सारे छा जाते हैं।हँसाते हैं,रुलाते हैं और तमाम सवाल सोचने के लिए छोड़ जाते हैं।'दिल खुश,फेफड़े उदास कहने वाला बच्चा कहता हैं,आज तक किसी ने पूछा ही नहीं,तू कैसा हैं?

आपने पूछा किसी से पूछा?  

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कैलाश वानखेडे।


दोनों कहानियाँ,’सत्यापन’ कहानी संकलन में 

सैराट /sairat/nagraj popatrov manjule

 

               प्रेम पानी से तरबतर सैराट

                      -कैलाश वानखेड़े

मेरे पास शुरूआती शब्द नही है.सैराट के अंत के बाद निशब्द हो गया था.सबकुछ इतना अचानक हो गया था कि नन्हीं आकाश  जब घर से बाहर निकलते हुए रो रहा था. तब तक भीतर का बहुत कुछ टूटकर बहने की बजाय अटक गया था. अबोध बालक  के पैर के निशान सड़क पर नही समाज के थोबड़े पर दिख रहे थे.लाल रक्तिम.वह चलती जा रहा था .वह रो रहा था  और गली सुनसान थी.मल्टीप्लेक्स में अँधेरा और सन्नाटा था,मुर्दा शांति से भरा हुआ.फिर लोग उठने लगे.मै बैठा रहा. चुप था।लोग जा रहे थे।बैठा रहा मै।जैसे भूल गया था अपने आपको।अपने घर को।शहर को।नोकरी को।मन को।और जब गेट बंद करने वाला आया तब लगा अब तो जाना होगा।उठना होगा. दिमाग बंद था।जबान पर ताला जड़ दिया था।
उठा और चप्पल ढूंढने लगा।रोशनी थी और मेरी चप्पल मुझे दिख नही रही थी।बस चुप था कि लगा,वो जो मारे जा रहे थे वे कौन थे?

मनुष्य..?

इस देश में किसी इंसान को किस रूप में पहचानते है.नाम से या शक्ल से.उसके काम से.क्या किसी मनुष्य को जानना इतना पर्याप्त नही है कि वः एक इंसान है?सच बताना नाम के साथ सरनेम जानकर और क्या जानना चाहते हैउसका धंधा या उसकी हैसियत ? आखिर क्या परेशान करता है नाम सरनेम विहीन आदमी  से स्त्री से?

आप सोचियेगा,आपका दिमाग उसके बारे में कौन कौन सी जानकारी इकठी करना चाहता है?

तो नागराज बड़े ही खिलदंडे अंदाज से माइक पकडकर परश्या की तलाश में हमें लगा देते है.परश्या एक झलक देखने की हसरत में हैंडपंप चला रहा है.कई बर्तन बिना डिमांड के भरकर दे रहा है.तमन्ना की भरी पूरी नदी से भरा हुआ है कि बस एक बार आर्ची दिख जाए.एक बार दीदार कर लू.ख़्वाब नींद में अब बडबडाने लगे है कि दोस्तों के साथ घरवालों को पता चल गया कि कालेज के पहले साल का यह मासूम किशोर अब इश्क की राह पर निकल गया है.इतना आगे पहुँच गया है कि उसने एक ख़त लिख दिया.

ख़त.

प्रेमपत्र.जो लिखे नही जाते है,उसने लिख दिया.प्रेम करना और उसे खत में अक्षरों से हकीकत करना,कितना मुश्किल हैवो जानते  है जिन्होंने इश्क किया लेकिन लिख नही पाए एक प्रेम पत्र.आपने किसी से प्रेम किया है?

प्रेम...

और आर्ची उस ख़त को लिए बिना हर बार एक सवाल भेजती है,उस तुतलानी वाली उम्र के लडके के हाथ जिसके हाथ में परश्या का पहला प्रेमपत्र है.ख़त पढ़ा नही गया और सवालों की लाइन राजमार्ग पर सरपट भागती है कि दर्शक को लगता है,अब क्या?जिज्ञासा,कौतुहल..क्या रिस्पांस होगा?वे सब चुप हो जाते है जिन्होंने प्यार किया लेकिन इजहार नही किया.हिम्मत नही हुई.ताकत नही थी कि लिख दे एक ख़त.चार लाइन की बजाय अढाई अक्षर के साथ एखाद कोई लाइन.लाइन लिख नही पाने की हसरत ताउम्र लिए बैठे थे कई,वे जो उम्र के अंतिम पड़ाव में या अधेड़ हो गए कि जिन्दगी से बेदखल हो चुके थे.जबकि जो इश्क में थे वे जानते है उस ख़त में क्या होगा,इसलिए वे प्रेम पत्र लिखते नही.

ख़त,एक अनुरोध,एक निवेदन,एक मन,एक सपना,एक हसरत,एक जिन्दगी,एक विश्व  ही तो है.सबकुछ है प्रेमपत्र.जवाब मिले न मिले लिखा ही जाना चाहिए कि परश्या  जिसकी मां मछली बेचती है.खुशियाँ लाती है.बाप अपना घर मछली पकड़ने से चलाता है. मां बाप का सपना..पढ़ेगा तो कुछ बनेगाअमूमन यही सपना देखा भोगा जाता है.जीवन यही है,यही माना है बापों ने.माओ ने और लड़का है कि लड़की के चक्कर में पड़ जाता है.लड़की प्यार में शिद्दत से डूब जाती है कि सभी समाज में पगला जाती है.जो प्रेम करते है वो पागल होते है.पागल न बने अपने बच्चे,इसके लिए तमाम जातन करते है.बिगड़  न जाये लड़की?अपने मन से जीने न लग जाए.कहाँ जीवन जिया है अपनी मनमर्जी से माओ बापों ने.वे अपनी जीवन का सबसे बड़ा बदला अपनी औलाद से लेते  है.इसलिए बचपन से सिखाते है.आज्ञाकारी बनाने के लिए हर संभव हथियार का इस्तेमाल करते है.और यहाँ सैराट में  गाने बजते है.स्वप्नदृश्य का मनोहारी संसार में गीत के बोल किसी अनाम फूल  के झाड से इस तरह झरते है कि पुरे सिनेमा हाल में बिखर जाते है. फुल,पेड़ आसमान और सूखा हुआ दरख्त पर परश्या और आर्ची की बजाय खुद बैठ जाता है.वे जो प्यार करना चाहते थे वे,वे जो प्यार के लिए दो बोल नही पाए.वे जो अपनी पसंद से शादी  नही कर पाए वे..वे सब जो मनुष्य है.वे सब कैमरे के भीतर उस जगह पहुँच जाते है जहाँ से खुद को खुद की खबर नही मिलती.शब्द मिलते है जो इतने धीमे से दिमाग के अंदर दाखिल हो जाते है कि दिल की धडकन के सिवा कुछ सुनाई नही देता.

और तभी दलित कविता,नामदेव ढसाल से केशव सुत पढ़ाने में डूबा  हुआ प्रोफेसर लोखंडे को एक लड़का दिखता है.जो सबसे बेखबर होकर मोबाइल पर बात कर रहा है.वे उससे पूछते है कौन हो तुम?वह लड़का जवाबी शब्दों के लिए जबान चलाने की बजाय अपना हाथ चलाता है.सटाक...गाल पर थप्पड़...लडके को यह बेहद अपमानजनक लगता है कि कोई उससे पूछे,तुम कौन हो?और लड़का चला जाता है.नाम है प्रिंस.उसी कक्षा में बैठी है आर्ची .बैठा है परश्या.और कई छात्र छात्राए.कोई आवाज नही आती.शाम ढले बुलाते है प्राचार्य और प्रोफेसरों को प्रिंस के पिता कि सब पहचान ले प्रिंस को ताकि इस तरह गुस्सा दिलाने वाला सवाल कोई प्रोफ़ेसर न कर सके.अन्यथा प्रिंस का गुस्सा न जाने क्या कर बैठे.गर्वित है पिता,शर्मसार है बहन.

श्रेष्ठता की ग्रन्थी प्रिंस का स्थाई मुकुट में तब्दील हो जाती है

उसी घर का नाम है अर्चना.अर्चना बोले तो आर्ची.

उस घर के कब्जे में है दूर दूर तक पसरा हुआ खेत,जिसमें गन्ने है.केले है और भी बहुत कुछ.गन्ने की खेती मतलब शक्कर कारखाना.शक्कर के उत्पादान के साथ है कॉलेज.बड़ी बड़ी शैक्षणिक संस्थाओ का अर्थ है डोनेशन जो पढने और पढ़ाने वालों से लिया जाता है.शैक्षणिक संस्थाओं के निजीकरण का दूर तक पसरा हुआ खेत.जो जीवन में एक बार बोया  जाता है और जब चाहा तब काटी जाती है फसल. और इन सबका कुल जमा है सत्ता.अर्थतंत्र का गठजोड़ के साथ यहाँ की गरीबी का असली कारण सामाजिक असमानता का स्वर जो लोगों को सुनाई नही देता है,

  यह सोलापुर जिले की इसी पृष्ठभूमि के साथ मुखर होता है. सोलापुर का अर्थ पंढरपुर के दर्शनाभिलाशी रमाबाई और अम्बेडकर का संवाद, कवि संत चोखामेला,लेखक योगिराज वाघमारे जी से मुलाक़ात और मेरे पिता द्वारा लाइ जाने वाली सोलापुरी चादरे है.सोलापुर की सीमा कर्नाटक से लगी है.ये सारी बाते और इनका असर. गाँव क़स्बा और लोग...यही के है.इन्हीं बातों से बने बिगड़े है. सैराट का वातावरण.वेशभूषा में जो मेहनत है वो सोलापुर के मन को उतार देती है रुपहले पर्दे पर.फिल्म में वेशभूषा आर्थिक स्थिति,सामाजिक जीवन का बयान है.

सोलापुर का शहर हैकरमाळा. उसी तहसील के एक गाँव में नागराज का जन्म होता है.इसी कस्बे में फिल्म जवान होती है.बार्शी सोलापुर उस्मानाबाद की सडक और कस्बे के भीतर जाकर पता चलता है अर्थतंत्र मुट्ठीभर लोगों के कब्जे में है और ढेर सारे मजूर. कम मजदूरी. ढेर सारा काम.तभी तो तीखी सब्जी का है वर्हाड़.वर्हाडी सब्जी मतलब पानी मांगने के लिए बेबस हो जाये.पानी पानी करती है जबान.

पानी

पानी किसके घर का पीना चाहिए.जाति व्यवस्था में खानपान दुसरे पायदान पर है.पानी जिसके घर पीना है,वह कौन है?जो पी रहा है वो कौन?

आर्ची जब परश्या के मां से पिने के लिए पानी मांगती है.तब मां बेटी की शक्ल पर जाति का इतिहास पढने को मिलता है.वही आर्ची का मौसेरा भाई को पानी पिलाने के लिए दादी कहती है,कि वो पाटिल(मराठा)है.तब बुढिया कहती है,मराठा को प्यास नही लगती?

आर्ची को प्यास नही लगती लेकिन वो परश्या के घर का पानी पीकर इस खतरनाक लाइन को तोड़ देती है.

     तो उस समाज में,जो सोलापुर का होने के बाद भी देश के किसी भी जगह का हो सकता है,वहां प्रेम करने लगता है परश्या.आर्ची को उसके बहतर फीसदी अंक होने की बात रोमांचित करती है.उसका अंदाज और मासूमियत के बीच कब ये प्रेम खिलदंडता के साथ अपने  उफान पर आ जाता है,पता ही नही चलता क्योंकि वे अपने आसपास के ही प्रेमी है.आसपास के प्रेमी का प्रेम देखना एक सपना है और इसे साकार करते है नागराज.इस समाज में प्रेम को गुनाह माना जाता है और अपनी जाति में हो तो वरदान समझ लेता है.इसलिए सयाने लोगबाग प्रेम सोच समझकर करते है.अपनी बिरादरी की अनिवार्य शर्त के बाद उसकी औकात अगर ठीकठाक है तो इस प्रेम को विद्रोह का नारा बनाने में कोई देर नही लगती.अकस्मात भी नही लगता है कि ऐसे प्रेम नियोजित षड्यंत्र होता है जो आपस में एक दुसरे ही के खिलाफ बुना जाता है.उस माहौल में मछली दूकान पर परश्या की मां को आत्या’(पिता की बहन) बोलते हुए प्रणाम करने के तरीके से तय कर देती है आर्ची की मंजिल.गाँव में रहते हुए वो रायल इनफील्ड चलाती है.परश्या के घर आकर  पानी  पीकर कहती  है,परश्या की मां बहन को कि वह अकेली जा रही है खेत में ट्रैक्टर चलाते हुए.अकेली..हाँ..अकेली ..कि परश्या आ जाए गन्ने के खेत में.प्रेमिका की हिम्मत, इतनी है कि क्लास में या पीटी करते हुए वह जमाने भर को ठेंगा दिखाती है.कालेज में आर्ची से दूर रहने की सलाह देकर भीड़ परश्या की पिटाई करती है तो कहती है,किसी ने भी इसे हाथ लगाया तो उसकी खैर नही.  और तमाम जोखिम उठाकर प्रिंस के बर्थ डे पर अपने घर बुलाती है.जहाँ झींग झींग झिन्गाट बजता है और अजय अतुल अपने संगीत से हर किसी को नचवाने के लिए आमंत्रित करते है.यह बिंदास नाच है.बिन्घास्त गाना है,जिस पर झूमझूमकर नाचना ही है... 'फैंड्री'  में  ढपले पर जब्या के साथ नाचता है नागराज अब परश्या के साथ.ये ठेठ देसी नाच है.इसमें अकेला व्यक्ति अपने साथ अपने समूह के साथ एकाकार होकर खो जाता है,नाच में संगीत में ,गीत में.इसमें मन है,उत्साह है और ढेर सारा आनन्द. अपने हिसाब से अपने मन की सुनने वाली ये बिंदास हवा ही है सैराट.किसी की परवाह किये बिना जीने की उद्दाम लालसा का साकार रूप यहाँ आकर जीने लगती  है कि बैठे बैठे पैर थिरकने लगते है.और यही से सैराट का दूसरा हिस्सा शुरू होता है.यही से प्रेम का मतलब पता चलता है.यही पर परश्या और दोस्तों की जानलेवा पिटाई होती है.यही से पता चलता है कि परश्या ने बिना सोचे बिना गणित के प्रेम किया है.सजा तो मिलनी चाहिए क्योंकि यह विजातीय प्रेम है.गैर दलित लड़की से प्रेम...इज्जत पर डाका.रक्तशुद्धता के तमाम जकडबंदी को तोड़ने का अपराध.तमाम परम्परा,संस्कृति को चुनौती देकर बाप की उस मर्दानगी पर सवालिए निशान लगने लगते है, जो अपनी बेटी को अपनी सम्पति मानता है.जब चाहेगा जिससे चाहेगा उससे शादी करवाने का उसे ठेका मिला है,उसको ध्वस्त करने पर जो तिलमिलाहट है वह कई गुना इसलिए बढ़ जाती है कि परश्या उस जमात का प्रतिनिधित्व करता है जिसे हाशिये पर रखा गया है,जिसे गाँव बाहर सडने के लिए छोड़ दिया.जिसकी बार्डर तय है,वह बार्डर तोड़कर रक्त शुद्धता के महान सिद्धांत की ऐसी की तैसी कर देता है.जाति की बात इस बर्बरता को और बढ़ाती है जब गन्ने के खेत में सलीम कहता है,वो तुझे गाड देंगे...यह भरोसा है सलीम को.इस अपराध की सजा में जवखेडा से लेकर ठेठ तमिलनाडु तक टुकड़े टुकड़े करने में कोई हिचक नही होती है,महानता का इतिहास का ढोल पीटने वालों को.यह तब और अपने बर्बरतम रूप में दिखती है कि इस प्रेम की सजा मां बाप को मिलती है.अंतरजातीय प्रेम,आख़िरकार परश्या के बहन की शादी न होना और परिवार को अपना गाँव छोड़कर जाना ही पड़ता है.अब गाँव बाहर भी नही रह सकते.सीमा रेखा पार  भी नही.दिखना नही चाहिए.दिखा तो जान ले लेंगे.मुझे मेरे ममेरे भाई के बेटे का अपराध याद आता है.घर छोडकर उनका रहना दिखता है.सब घटित होता है,मेरे भीतर.

आख़िरकार पकडे जाते है दो दोस्तों के साथ आर्ची परश्या.आर्ची को ममेरा भाई बताता है,बलात्कार,अपहरण का केस परश्या पर लगा दिया है.आर्ची उसी आक्रमकता से थानेदार से लडती है.मैं ले गई थी परश्या को.अपनी मर्जी से गई थी.उसे और साथियों को छोड़ दो.बाप तमाम हैसियत के बाद भी निरीह दिखता है.वे बाप वो व्यवस्था चाहते है परश्या और उसके दोस्त जेल में सड जाए.जेल, न्यायपालिका, पुलिस...जिन्दगी बर्बाद करने के लिए काफी है.छुड़ाती है सबको.जो साहस है,पहल है,हिम्मत है,वह सारी आर्ची में डाल दी लेखक निर्देशक ने.

आर्ची साहस की हर सीमा तोड़ने वाली लड़की का नाम है.अपनी जिन्दगी अपनी शर्त से जीने वाली लड़की है.वो लड़की जिसे कोख में मारने के बाद भी अपराधबोध से ग्रसित नही होता है समाज.वो लड़की जिसे  पैदा होने के बाद मूलभूत अधिकार से वंचित किया जाता है.जिसे प्राइवेट प्रापर्टी मानकर दान किया जाता है.जिसे पिता की सम्पति में कोई हिस्सा नही दिया जाता है.क्योंकि लड़की,मनुष्य नही सम्पति है.जिसे एक उम्र के बाद उस घर में नही रहना है.पराया धन है.अब उसकी अर्थी ही आनी है.उस समाज की आँख से  सिर्फ आँख मिलाते है नागराज मुन्जाले. वे जो करते  आ हे है तय,कथा,पटकथा.दलित व्यक्ति का जीवन,भूमिका,व्यवहार.उनको यह नागवार लगता है कि हीरो के रूप में दलित क्यों?यदि दलित ही रखना था तो फिर कथित ऊची जात की लड़की को प्रेमिका क्यों बनाया...क्यों?

विवाद क्या इस बात पर होना चाहिए

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 16 मई 2016 

झोपड़पट्टी के मासूम फूलों का झुंड

                     जिंदगी,झोपडपट्टी की अंधेरी संकरी गलियों में कदम तोड़ देती है और किसी को   भी पता नहीं चलता है।जीवन जिसके मायने किसी को भ...