Sunday, October 7, 2012

चूल्हा.....कविता

कैलाश  वानखेड़े

बुरी तरह से थका हुआ अँधेरा करता है इंकार
अभी नहीं जाऊँगा और सो जाता है बडबडाते हुए
सुकून से दो पल भी सोने नहीं देते है.

उसी वक्त दिमाग के भीतर का अलार्म सोने नहीं देता उसे
पैरों के गले में पड़ी उम्मीद जगा देती है
कि चूल्हा सुलगाने के लिए आग धुएं के साथ
छिपमछई खेलती है
आँखों में धुंआं चढ़कर लिपटता है
कि राजमार्ग को जोडनेवाला फ्लाईओवर का पुल
छीन लेता है धुएं को और डरा देता है
आज अगर कहा कम है दाम तो दम निकाल लेंगे
बोल कहाँ जायेगी
दाम में से निकालकर दम को जान देने
पता है उसका पत्ता ...

गिनती है फ्लाईओवर  पुल के खम्बे
करती है बाते
सुनती है संगी साथी की बाते
बातों से बनाती है अपना फ्लाईओवर
खड़ा करती है खम्बे सपनो के

सपनों को बनाती है समतल से ढलान
उस पर रोज लुढकाती है अपने मन को
कई मन धीरे धीरे मान जाते है
सब मन मिलकर लुढकने के बाद
चलने लगते है
कि खड़ा करती है सवाल
तयशुदा जवाब लाल आँखों से आता है
औरत होकर सवाल करती है
कि हक बताती है
जो है सो लो
वरना आगे बढ़ो
बहुत मिल जायेगी इस दाम पर
हजारों हे हजारों ..तुम हो क्या ...''
लाल है चूल्हे से लाल कि उबल रही थी
कि पका रही थी
कि बना रही थी अपने को अपनों के साथ
'' हम हो या हो हमारी बहने
करेगी नहीं काम कम दाम में
हो दम तो  शुरू करके दिखा देना अपना काम.
कहती है तो उठते है कई हाथ .
  अब धुआँ खेल नही पायेगा छिपमछई
 कि सुलग चुकी है लकड़ी .

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